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इच्छा-मृत्यु - एक वरदान

 

शास्त्रों के अनुसार जीवन में 72 कलाएं है। उनमें दो कलाएं मुख्य हैं - एक जीने की कला और दूसरी मरने की कला। 

इंसान को जीने की कला तो आनी ही चाहिए और साथ ही उसे मरने की कला भी आनी चाहिए। अगर जीने की कला ना आए जीवन दुखदाई बन जाता है और मरने की कला ना आए तो बुढ़ापा दुखदाई और अपमानजनक बन जाता है।

मरने की ही एक सुंदरतम कला है - इच्छा-मृत्यु। प्राचीन काल में इच्छा-मृत्यु, यानि स्वेच्छा से इस नश्वर शरीर के त्याग को, एक सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था। इसी आधार पर समाज में इच्छा-मृत्यु का प्रावधान भी हुआ करता था। बहुत सारे महान पुरुषों, जैसे भीष्म पितामह, भगवान राम, स्वामी रामतीर्थ इत्यादि, ने भी इच्छा-मृत्यु को अंगीकार किया, और संसार के सामने एक मिसाल पेश की कि स्वेच्छा से नश्वर शरीर का त्याग भी एक दिव्य और सुखदाई अनुभव हो सकता है।


1. भगवान राम ने इच्छा-मृत्यु से नश्वर शरीर का त्याग किया 

भगवान राम की अगर मिसाल लें, तो जब वह अपने सिंहासन पर विराजमान थे, तो अचानक उन्होंने उद्घोष किया कि "अब मेरे जीने का कोई प्रयोजन बाकी नहीं रह गया है। इसलिए मैं अपने नश्वर शरीर का त्याग करना चाहता हूं।" आसपास मौजूद लोगों ने, जो उनसे बड़ा प्यार करते थे, उनको ऐसा ना करने के लिए अनुरोध किया, लेकिन भगवान राम सरयू नदी पर गए, कुछ शिष्य भी उनके साथ गए, और उन्होंने इच्छा-मृत्यु को अपनाते हुए नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। आज की भाषा में कोई कह सकता है कि उन्होंने आत्महत्या की लेकिन इच्छा-मृत्यु और आत्महत्या की भावना में बहुत अंतर है।


2. इच्छा-मृत्यु आत्महत्या नहीं है  

हालांकि दोनों में ही नश्वर शरीर का त्याग होता है लेकिन आत्महत्या नकारात्मक भाव से पैदा होती है, और इच्छा-मृत्यु एक बहुत ही सकारात्मक दृष्टिकोण का परिणाम है। आत्महत्या जीवन के सफर को बीच में ही छोड़कर भाग जाने का नाम है जबकि इच्छा-मृत्यु उस सफ़र को अपने मुकाम तक पहुंचा कर सफर का सुंदरतम समापन है। आत्महत्या का आधार जीवन की हार है, जबकि इच्छा-मृत्यु जीवन की महाविजय का उद्घोष है। 

वैसे भी, धर्म शास्त्रों के अनुसार आत्मा अमर है, आत्मा की हत्या तो हो ही नहीं सकती। जहां तक नश्वर शरीर के त्याग का सवाल है, वह तो होना ही है, आज नहीं तो कल।  

 

3. इच्छा-मृत्यु की स्वीकारिता 

अक्सर बुढ़ापे में शरीर को रोग लग जाते हैं, और ग्रंथों में तो यहां तक कहा  है कि बुढ़ापा तो अपने आप में ही एक रोग है, जिसको 'जरा रोग' कहा गया है। बुढ़ापे के इन रोगों, दुखों और मोहताजगी से छुटकारा पाने के लिए इच्छा-मृत्यु पर आधारित बहुत सारी प्रथाएं प्रचलित रही हैं, जैसे जैन धर्म में इच्छा-मृत्यु को 'संथारा' और प्राचीन भारतीय हिंदू संस्कृति में इसको 'प्रायोपवेशन' कहा जाता है।

बहुत सारे ऐसे देश हैं जैसे स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, नीदरलैंड, कनाडा, कोलंबिया, स्पेन इत्यादि, जहां पर इच्छा-मृत्यु (Euthanasia) को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और सरकार की तरफ से संवैधानिक मान्यता भी प्राप्त है।

संवैधानिक दृष्टि से भी, जीवन (Right to life) एक इंसान का मौलिक अधिकार है, और जीवन और मृत्यु इसके दो किनारे हैं। अगर जीवन का अधिकार है तो मृत्यु का अधिकार भी इसमें स्वतः शामिल है। मृत्यु का अधिकार दिए बिना जीवन का अधिकार अपने आप में अधूरा है।

Dignified death is your right.

 

4. इच्छा-मृत्यु का उचित समय

इतिहास में इच्छा-मृत्यु को अंगीकार करने वाले बहुत महान इंसान हुए हैं। यह एक बहुत ही पाक और पवित्र संस्कार है, जो मन की बहुत ऊंची अवस्था से ही प्राप्त होता है जब कोई इंसान इस संसार की क्षणभंगुरता और व्यर्थता को जानकर इससे जुड़ी आसक्तियों से ऊपर उठ जाता है। 

वास्तव में, वह जीवन को इतनी समग्रता से जी लेता है कि उसका मन भोगों और वासनाओं से ऊपर उठ जाता है। उसकी जीवेष्णा समाप्त हो जाती है और फिर वह अपने नश्वर शरीर का त्याग करने का निश्चय करता है तो यह बहुत ही उच्च विवेक का संकेत होता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इच्छा-मृत्यु के शुभ संस्कार का उचित समय तब है "जब जीवन में सिर्फ खाना, पीना और सोना - ये तीन ही कार्य बाकी रह जाएं, और जीवन दूसरों के ऊपर बोझ बन जाए"। 

 

5. इतिहास से कुछ मिसालें

  • आचार्य विनोबा भावे जिनको 'मैगसेसे' और 'भारतरत्न' जैसे पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, उन्होंने भी इच्छा-मृत्यु को अंगीकार किया। उन्होंने भारतीय हिंदू संस्कृति की प्राचीन परम्परा प्रायोपवेशन' को अपनाते हुए, जल और भोजन का त्याग करते हुए, 1982 में अपनी इच्छा से नश्वर शरीर का त्याग किया। इस महा-त्याग को  उनके आध्यात्मिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है।
  • स्वामी रामतीर्थ जी ने मात्र 32 साल की उम्र में, स्वेच्छा से एक ऊंची चोटी के शिखर से कूदकर अपना नश्वर शरीर गंगा को समर्पित कर दिया था, और इच्छा-मृत्यु को उपलब्ध हुए।
  • गुरु अर्जन देव जी महाराज को भी जब गर्म तवे के ऊपर बैठना पड़ा, तो अपनी शारीरिक अवस्था को देखते हुए उन्होंने पास में बहती हुई रावी नदी में स्नान करने की इच्छा जाहिर की, और उसी में नश्वर शरीर का त्याग कर दिया। 
  • राजपूत राजाओं में भी जौहर की जो प्रथा थी, वह भी इच्छा मृत्यु का ही एक दूसरा रूप था। उसके पीछे भी भाव यही था कि अगर आने वाला समय बहुत ही कष्टप्रद होने वाला हो तो उस स्तिथि में नश्वर शरीर का त्याग एक वरदान की तरह होता है।

 

6. सामाजिक दृष्टिकोण से

इच्छा-मृत्यु जैसे विषय को जब सामाजिक दृष्टि से देखते हैं तो ऐसा लग सकता है कि जैसे यह सोच जीवन के खिलाफ है या डिप्रेशन जैसे किसी मनोरोग का नतीजा है। लेकिन विवेकशील व्यक्ति यह जानते हैं कि इच्छा-मृत्यु कोई नकारात्मक सोच नहीं है, बल्कि यह तो जीवन यात्रा का सुंदर विराम है। जीवन एक यात्रा है, इसको समाप्त होना ही है, तो क्यों ना इस यात्रा का समापन सुंदर तरीके से किया जाए।

और इस विषय को जब स्वास्थ्य की दृष्टि से देखते हैं तो अक्सर बुढ़ापे में, बुजुर्ग अवस्था में, शारीरिक दुख इतना बढ़ जाता है कि जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता, और सिर्फ खाना-पीना-सोना ही बाकी रह जाता है। ऐसे समय पर नश्वर शरीर का त्याग बिल्कुल उचित है क्योंकि इस स्थिति में एक इंसान अपने लिए भी दुख का कारण बन जाता है और अपने परिवार के लिए भी, और समाज के ऊपर भी एक बोझ बन जाता है। 

आधुनिक युग में ऐसा प्रतीत हो सकता है कि बुढ़ापे के आखिरी दौर में अस्पतालों के चक्कर शायद हमारे जीवन को बढ़ा देते हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि वे अक्सर हमारे दुखों के समय को बढ़ा देते हैं।  

 

निष्कर्ष

इच्छा-मृत्यु को एक वरदान की तरह देखा जाता रहा है। जीवन यात्रा का समापन सुंदर हो, दुखों से भरा हुआ ना हो, संसार के ऊपर इंसान बोझ ना बने और हंसते खेलते व स्वाभिमान के साथ इस जीवन की यात्रा को संपन्न करे - इन खूबसूरत उद्देश्यों को पूरा करता है इच्छा-मृत्यु का वरदान! जैसे किसी शायर ने भी कहा है कि,

आने और जाने का सुंदर सलीका है यही,  

मुस्कुराते आइए और मुस्कुराते जाइए!


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